रविवार, 6 अक्तूबर 2019

जरूरी है लिखना...

कितना कुछ है हमारे मानस में जो परिवेश से रोजाना परिवर्तित होता है । आज की जो हमारी वैचारिकी है यह बीते हुए कल को लाँघकर आया है आनेवाला कल इसे परखेगा, तौलेगा फिर किसी किनारे टिका देगा ।
लिखना समय के बहाव पर हस्तक्षेप जैसा भले मालूम पड़ता हो पर यह इस प्रकार है जैसे किसी नदी के किनारे बैठकर हम उसकी तरलता देखकर सजीव हो उठते हैं। हमारी उपस्थिति उसके रंग छाँव- परछाई के रूप में ही सही कमोबेश बदलती है। समय की प्रवाह बदलती है हमारी इच्छाशक्ति एवं प्राथमिकतायें।
लिखना हमें बनाता है सजीव आँखें "आँखें" जो अलग- अलग मनोदशा में देखती है समान सी स्थिति एवं घटनाओं में अनेक मनोभाव, चित्र, बिम्ब तथा भूत, भविष्य व वर्तमान । 
लिखना किसी स्थिति या घटनाओं को परिभाषित करने जैसा नहीं होता । यह महज एक स्थिर तस्वीर सी है जो समय की निरंतरता के किसी हिस्से से उठाकर चस्पा कर दिया गया हो। उदाहरण के तौर पर ही देखिये - मेरे पते पर चस्पा की गई एक तस्वीर-सी मेरा एक पोस्ट जो मटमैली-सी मालूम होती है तीन साल से भी अधिक पुरानी है। 
कैसी बेचारगी रही होगी किसी की जिसने घर खरीद फिर उस घर के दरवाजे तक दुबारा लौटकर झाँका तक नहीं हो। वह भाव शून्यता से ग्रसित रहा हो शायद या गया हो कहीं दूर जहाँ ठहरने के बज़ाय रुक-सा गया हो। ठहरने का प्रयोजन होता है अक्सर ठहरना लक्षित कार्य की राह का मुकाम होता है। रुकना हमारी निष्क्रियता है, जहाँ हम चाहे- अनचाहे बिना किसी प्रयोजन के समय का ख्याल रखे बग़ैर रचनात्मतकता के स्तर पर कुछ कर नहीं रहे होते हैं। 
लिखने की प्रक्रिया को मैं वैज्ञानिक तरीके से देखता हूँ, यह गणित के उस अभ्यास की तरह है जिसे जितना करेंगे हम अगले स्तर पर पहुँच सकेंगे अन्यथा हमारी हालत ठीक वैसी ही होगी कि हल करते समय हमें अपनी अनभिज्ञयता का आभास हो। अब ठहरने और रुकने के अंतर से भली भांति मैं परिचित हूँ, नियमित रूप से आपको ख़त लिखा करेंगे। 
लिखना हमें सुलझाती है अनुभूति के स्तर पर एक सी प्रतीत होती स्थितियाँ कथ्य के रूप पर अधिक स्पष्ट आकार ग्रहण करती हुई प्रतीत होती है।



शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

पहले पहल


पहले पहल यहां आना और कागज़-कलम के स्थान पर आभासी पृठों पर टंकित करना, एक ओर आतुर मन का उत्साह तो दुसरी ओर नये मंच पर उपस्थित होने के आभास से उत्पन्न असहजता के बीच लिखते हुए, एक अंतर्द्वंद और भी है कि इससे पहले मेरे लिखने की जगह निज़ी डायरी में सुझाव एवं प्रतिक्रिया की गुंजाइश न के बराबर थी, इससे पहले मै उस डायरी से कितना, क्या सीख पाया हूँ, इस क्रम मे मेरी दिशा क्या रही है, क्या मैने खुद को टटोलने से प्रारंभ करके किसी खिड़कियों से बाहर झांकने कोशिश की या किसी अंधेरी गुफा में उसकी अंतिम छोर की तालाश मे अग्रसर रहा  हूँ इसका मुझे भान नही।                                   
            शायद यही तड़प मुझे इस "रोशनदान" तक खींच लाई है जहां हवा, रौशनी व धूप की पर्याप्त उपलब्धता, यह अनुकूल मौसम हमें विकास व संभावनाओं को आकार देने की शक्ति प्रदान करेंगे ऐसी उम्मीद  है। 

अब बात करें शीर्षक  "ग़लत पते की चिठ्ठी " की तो अब तो सामान्यतः पत्र-व्यवहार का प्रचलन न के बराबर है अगर कार्ययालयी काम-काज के अलावा अगर कोई दो-चार लोग अब भी अगर अपने मित्रजन या सगे-संबंधियों से पत्र के जरिये बात-चीत करते हों तो ये शौक़िया काम है,पर बात दरसअल उन दिनों की है जब पत्र के जरिये संवाद अन्य विकल्प के अभाव में अपने चरम पर था, तब शब्दों में अधिक अर्थ और संवेदना धारण करने की क्षमता थी चंद पैसों के  पोस्टकार्ड(माफ़ कीजियेगा तब पैसे का मूल्य अधिक हुआ करता था जाहिर है महत्व  भी) अपने भीतर लम्बे क्षण के अनुभवों सुख-दुःख, हर्ष व अवसाद के बखूबी बयान को अपने में सहेज लेने के लिए पर्याप्त नहीं तो कम भी नहीं थे ये पोस्टकार्ड। 'पता' जो आजकल 'एड्रेस' हो गया है इसका भी बड़ा महत्त्व था, बड़ी सजगता से लिखी व संजो कर रखी जाती थी अन्यथा चिट्ठी इधर -उधर हो जाने के भनक से पहले ही डाकखाने के बाबू सबसे पहले पते को गलत ठहरा देने की कलाओं मे प्रवीण थें ।
                        अच्छा ये तो रही बात पते की पर मेरा यह पता "गलत पते की चिठ्ठी" यह सिर्फ नाम है स्वाभाव नही  इस पते पर भेजी गई हर चिठ्ठी  हम तक पहुंचेगी इस बात के लिए आप निश्चिंत रहिये। 

पवन कुमार, 29.01.2015