कितना कुछ है हमारे मानस में जो परिवेश से रोजाना परिवर्तित होता है । आज की जो हमारी वैचारिकी है यह बीते हुए कल को लाँघकर आया है आनेवाला कल इसे परखेगा, तौलेगा फिर किसी किनारे टिका देगा ।
लिखना समय के बहाव पर हस्तक्षेप जैसा भले मालूम पड़ता हो पर यह इस प्रकार है जैसे किसी नदी के किनारे बैठकर हम उसकी तरलता देखकर सजीव हो उठते हैं। हमारी उपस्थिति उसके रंग छाँव- परछाई के रूप में ही सही कमोबेश बदलती है। समय की प्रवाह बदलती है हमारी इच्छाशक्ति एवं प्राथमिकतायें।
लिखना हमें बनाता है सजीव आँखें "आँखें" जो अलग- अलग मनोदशा में देखती है समान सी स्थिति एवं घटनाओं में अनेक मनोभाव, चित्र, बिम्ब तथा भूत, भविष्य व वर्तमान ।
लिखना किसी स्थिति या घटनाओं को परिभाषित करने जैसा नहीं होता । यह महज एक स्थिर तस्वीर सी है जो समय की निरंतरता के किसी हिस्से से उठाकर चस्पा कर दिया गया हो। उदाहरण के तौर पर ही देखिये - मेरे पते पर चस्पा की गई एक तस्वीर-सी मेरा एक पोस्ट जो मटमैली-सी मालूम होती है तीन साल से भी अधिक पुरानी है।
कैसी बेचारगी रही होगी किसी की जिसने घर खरीद फिर उस घर के दरवाजे तक दुबारा लौटकर झाँका तक नहीं हो। वह भाव शून्यता से ग्रसित रहा हो शायद या गया हो कहीं दूर जहाँ ठहरने के बज़ाय रुक-सा गया हो। ठहरने का प्रयोजन होता है अक्सर ठहरना लक्षित कार्य की राह का मुकाम होता है। रुकना हमारी निष्क्रियता है, जहाँ हम चाहे- अनचाहे बिना किसी प्रयोजन के समय का ख्याल रखे बग़ैर रचनात्मतकता के स्तर पर कुछ कर नहीं रहे होते हैं।
लिखने की प्रक्रिया को मैं वैज्ञानिक तरीके से देखता हूँ, यह गणित के उस अभ्यास की तरह है जिसे जितना करेंगे हम अगले स्तर पर पहुँच सकेंगे अन्यथा हमारी हालत ठीक वैसी ही होगी कि हल करते समय हमें अपनी अनभिज्ञयता का आभास हो। अब ठहरने और रुकने के अंतर से भली भांति मैं परिचित हूँ, नियमित रूप से आपको ख़त लिखा करेंगे।
लिखना हमें सुलझाती है अनुभूति के स्तर पर एक सी प्रतीत होती स्थितियाँ कथ्य के रूप पर अधिक स्पष्ट आकार ग्रहण करती हुई प्रतीत होती है।