पहले पहल यहां आना और कागज़-कलम के स्थान पर आभासी पृठों पर टंकित करना, एक ओर आतुर मन का उत्साह तो दुसरी ओर नये मंच पर उपस्थित होने के आभास से उत्पन्न असहजता के बीच लिखते हुए, एक अंतर्द्वंद और भी है कि इससे पहले मेरे लिखने की जगह निज़ी डायरी में सुझाव एवं प्रतिक्रिया की गुंजाइश न के बराबर थी, इससे पहले मै उस डायरी से कितना, क्या सीख पाया हूँ, इस क्रम मे मेरी दिशा क्या रही है, क्या मैने खुद को टटोलने से प्रारंभ करके किसी खिड़कियों से बाहर झांकने कोशिश की या किसी अंधेरी गुफा में उसकी अंतिम छोर की तालाश मे अग्रसर रहा हूँ इसका मुझे भान नही।
शायद यही तड़प मुझे इस "रोशनदान" तक खींच लाई है जहां हवा, रौशनी व धूप की पर्याप्त उपलब्धता, यह अनुकूल मौसम हमें विकास व संभावनाओं को आकार देने की शक्ति प्रदान करेंगे ऐसी उम्मीद है।
शायद यही तड़प मुझे इस "रोशनदान" तक खींच लाई है जहां हवा, रौशनी व धूप की पर्याप्त उपलब्धता, यह अनुकूल मौसम हमें विकास व संभावनाओं को आकार देने की शक्ति प्रदान करेंगे ऐसी उम्मीद है।
अब बात करें शीर्षक "ग़लत पते की चिठ्ठी " की तो अब तो सामान्यतः पत्र-व्यवहार का प्रचलन न के बराबर है अगर कार्ययालयी काम-काज के अलावा अगर कोई दो-चार लोग अब भी अगर अपने मित्रजन या सगे-संबंधियों से पत्र के जरिये बात-चीत करते हों तो ये शौक़िया काम है,पर बात दरसअल उन दिनों की है जब पत्र के जरिये संवाद अन्य विकल्प के अभाव में अपने चरम पर था, तब शब्दों में अधिक अर्थ और संवेदना धारण करने की क्षमता थी चंद पैसों के पोस्टकार्ड(माफ़ कीजियेगा तब पैसे का मूल्य अधिक हुआ करता था जाहिर है महत्व भी) अपने भीतर लम्बे क्षण के अनुभवों सुख-दुःख, हर्ष व अवसाद के बखूबी बयान को अपने में सहेज लेने के लिए पर्याप्त नहीं तो कम भी नहीं थे ये पोस्टकार्ड। 'पता' जो आजकल 'एड्रेस' हो गया है इसका भी बड़ा महत्त्व था, बड़ी सजगता से लिखी व संजो कर रखी जाती थी अन्यथा चिट्ठी इधर -उधर हो जाने के भनक से पहले ही डाकखाने के बाबू सबसे पहले पते को गलत ठहरा देने की कलाओं मे प्रवीण थें ।
अच्छा ये तो रही बात पते की पर मेरा यह पता "गलत पते की चिठ्ठी" यह सिर्फ नाम है स्वाभाव नही इस पते पर भेजी गई हर चिठ्ठी हम तक पहुंचेगी इस बात के लिए आप निश्चिंत रहिये।
पवन कुमार, 29.01.2015
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